आज अपने ग्रह पृथ्वी पर परमाणु बमों एवं रासायनिक हथियारों का जो हुजूम है, उससे यही लगता है कि पूरी पृथ्वी पर एक सामूहिक आत्मघात होने वाला है। लाखों वर्षों के पश्चात आज इस ग्रह के कुछ प्राणी एक और चेतना के उस शिखर पर पहुंचे हैं, जहां विज्ञान, कला, साहित्य और आध्यात्म के विकास से व्यक्ति ने जीवन की ऊंचाईयों का स्पर्श किया है। और वहीं दूसरी ओर कुछ विक्षिप्त प्राणियों (राजनीतिज्ञों) ने हमें बख्शा है युद्ध, सूखा, एड्स, रासायनिक हथियार, ओझोन की परतों से बने छेद, परमाणु संहार। धरती के तापमान का बढ़ना, विलुप्त होती जा रही जातियों का विनाश, उष्ण कटिबन्धीय जंगलों का नाश, रेगिस्तानों का फैलाव, नशीली दवाएं, साम्प्रदायिक हिंसा... और भी बहुत कुछ!
खेद का विषय है कि यदि विश्व का प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग इस प्रक्रिया पर रोक नहीं लगाएगा तो यह विनाश रोकेगा कौन? क्या यह काम हम उन्हीं लोगों के हवाले छोड़ रहे हैं, जिन्होंने यह उलझाव पैदा कर दिया है? अब जबकि प्रश्न जीवन-मरण का बन गया है तो विश्व के बुद्धिजीवियों का यह दायित्व हो जाता है कि वे इन तमाम मूढ़ताओं के खिलाफ आवाज बुलन्द करें।
ओशो जीवन भर तमाम रूढ़ियों और मूढ़ताओं के खिलाफ बराबर बोलते रहे। उनके बोलने का उद्देश्य लोगों को सन्तुष्ट करना नहीं रहा। वे सदैव यही चाहते रहे कि लोग सोचे-विचारें। क्योंकि सोच-विचार की तो जैसे मृत्यु ही हो गयी है। विचार और होश को पुनरुज्जीवित करने हेतु ओशो ने प्रेम और ध्यान का आन्दोलन चलाया जिसमें जीवन के अनेक आयामों से सम्बन्धित विषयों पर वे खूब बोले। उनके प्रवचनों की लगभग सात सौ (700) पुस्तकें हैं, जिनका विश्व की 45 से भी अधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इस प्रकार ओशो विश्व के सबसे अधिक उर्वर साहित्य सर्जक के भी रूप में उभर कर आते हैं। उनके साहित्य में कबीर, मीरा, शंकराचार्य, जीसस क्राइस्ट, मुहम्मद साहब, गुरु नानक, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, रैदास, लाओत्से, जरथुस्त्र आदि युद्धपुरुष पुनर्मुखरित हुए है
ओशो ने अनेक बार कहा है कि जब तक व्यक्ति की चेतना का जागरण नहीं होता, तब तक वह जो भी करेगा उसके परिणाम अच्छे होने वाले नहीं होंगे। और चेतना के जागरण का एक मात्र उपाय है-ध्यान। उन्होंने कहा हैकि हम सिर्फ एक ध्यान-आन्दोलन हैं। सत्य को प्रकट करने वाले उनके वक्तव्यों के कारण उन्हें पुरोहितों और राजनेताओं का कोपभाजन भी बनना पड़ा। यहां तक कि उनकी देह-मृत्यु भी अमेरिका की रीगन सरकार द्वारा दिये गये धीमे असर वाले तेज विष (थेलियम) से 19 जनवरी 1990 को हुई। आज ओशो शारीरिक रुप से हमारे बीच नहीं हैं; लेकिन आज के वैज्ञानिक, कलाकार, कवि, विद्यार्थी, प्रोफेसर, व्यवसायी, डॉक्टर, कानूनविद, युवा, मनीषी, चित्रकार, संगीतकार, पत्रकार, वृद्ध, प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध...संसार के प्रत्येक कोने से ओशो द्वारा सुझाये विचार, ध्यान और प्रेम की मशाल जलाकर निकल पड़े हैं। ऐसे मशाल अभियान के अन्तर्गत पूरे विश्व में ओशो के संन्यासियों तथा ओशो-ध्यान केन्द्रों के माध्यम से ओशो ध्यान-साधना शिविरों के आयोजन स्थान-स्थान पर हो रहे हैं।
स्वामी सुदर्शन सलिलेश
(शाहजहांपुर)